Vallabha-caitanya

From Encyclopedia of Pushtimarga
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How far the stories on Mahāprabhu Srī Vallabhācārya in Caitanya Caritāmr̥ta are reliable?

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाग्‍ँसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ।

O Lord, let us listen to good things through our ears, see good things through our eyes. With our limbs and strong body, we pray you, to live our full span of life, given by you.

Exposing inconsistencies, and fallacies in Caitanya Caritāmr̥ta of Kr̥ṣṇadāsa Kavirāj

A specific group of people within Caitanya saṁpradāya is operating under the agenda to malign the image of Srī Vallabhācārya by forging false stories and allegations on how Srī Vallabhācārya was and how was he rebuked by Sri Caitanya, how Caitanya was superior to him and up-to an extent of claiming that Srī Vallabhācārya was the disciple of one of the disciples of Sri Caitanya. Such stories are nothing but a pure lie and untruth backed by a deep conspiracy and hatred towards those who try to become an ecstatic devotee of Lord Kr̥ṣṇa. They have managed to manipulate the historical facts through their literature as done in one of their texts known as Sri Caitanya Caritāmr̥ta written by Kr̥ṣṇadāsa Kavirāj. It seems such group of people believes in claiming and obtaining the exclusive possession or control of devotion towards Srī Kr̥ṣṇa and thus believes that they own the sole right in performing the Kr̥ṣṇa devotion and that others can’t match their devotional stature. It seems that such people believe that they have monopoly in Kr̥ṣṇa devotion thereby. Let us clarify very categorically – Lord Kr̥ṣṇa and The devotion towards Lord Kr̥ṣṇa can never be anyone’s monopoly since Lord Kr̥ṣṇa himself says “nāyamātmā ca pravacanēna labhyō...” – I am achieved by those who I wish to achieve me. Thus, it's pure delusion to try to monopolize the Kr̥ṣṇa bhakti.

In this article, we will be exposing systematically each and every false claims/allegations that Kr̥ṣṇadāsa Kavirāj has leveled against Srī Vallabhācārya in his text and in fact point out mutually contradictory and inconsistencies within his own text making the entire text questionable for its validity and not being able to represent the facts without any prejudice.

हमें न तो कृष्णदास कविराज से कोई आपत्ति है न ही सम्पूर्ण चैतन्य चरितामृत ग्रंथ से.. हमारी आपत्ति मात्र इसमें आते आपराधिक अंशो से है ... जिनका लेखक कोई वैष्णव द्वेषी ही हो सकता है कृष्णदास कविराज जैसा भक्त नहीं...

निस्संदेह मूल चैतन्य चरितामृत गौडिया दर्शन का अनुपम ग्रंथ रहा होगा इससे हमे कोई आपत्ति नहीं. किंतु श्रीचैतन्य के जीवन पर प्रकाश डालना इसका मुख्य विषय होने के कारण ये ग्रंथ है तो एक hagiography ही!!

अब आते है वार्ता साहित्य पर गौड़ीयों द्वारा की जाती अभद्र टिप्पणी पर!

प्रथम तो वार्ता साहित्य में कई ग्रंथ आते हैं . इनमे चौरासी वैष्णव वार्ता, अष्टासखान की वार्ता, 252 वैष्णव वार्ता, तथा प्राचीन निज वार्ता अपने मूल प्राचीन रूप में प्राप्त हैं. इनके प्रणयिता स्वयं गोस्वामी श्रीविट्ठलनाथजी के पुत्र गोस्वामी श्रीगोकुलनाथजी हैं. "... *आज कथा को फल कहत हैं..."* इन वचनों द्वारा गोस्वामी श्री गोकुलनाथ जी ने वार्ता का प्रारंभ किया. महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य के पुष्टी भक्ति मार्ग को किस प्रकार सूरदास प्रभृति वैष्णवो ने अपने जीवन में जिया यह वार्ता साहित्य का विषय है. ऐसे विशुद्ध वार्ता ग्रंथो का comparision वैष्णव संप्रदाय के आचार्यों को गाली देने वाले, चैतन्य चरितामृत,प्रेमविलास जैसे किसी आपराधिक ग्रंथ से किया ही नहीं जा सकता!!

ऐसे अपराध युक्त ग्रंथ को बिना किसी ऐतिहासिक प्रमाण के दुराग्रह से सत्य मानना मूर्खता एवं अल्प बुद्धिमत्ता ही नहीं बल्कि एक महत् वैष्णव अपराध है.

वैष्णव अपराध चाहे गुप्त रीति से किया जाए अथवा ढिंढोरा पीट के गलियों में गाना गा के सबके सामने किया जाए , रहेगा वह एक तुच्छ वैष्णव अपराध ही!! ऐसे घनघोर अपराधिक अंश से संयुक्त ग्रंथ को सत्य स्वीकारना अपने आप में महत् वैष्णव अपराध है साथ ही मूल प्राचीन ग्रंथ की हत्या ही है!!

बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि ऐसे वैष्णव अपराधिक पाठ का अधिकारी आप स्वयं को माने!

हमारा प्रश्न एकमात्र यही है कि क्या इस वर्तमान प्रचलित चैतन्य चरितामृत में आते अपराधिक अंश के रचयिता कृष्णदास कविराज थे भी ? क्या प्राचीन manuscripts में यह बात पाई जाती है? क्या चैतन्य चरितामृत ग्रंथ के चोरी होने के कारण कृष्ण दास कविराज ने आत्महत्या की थी जैसा बंगाली ग्रंथ प्रेम विलास में आता है?

जाहिर सी बात है ग्रंथ हीरे मोती जड़ित नहीं होते जिन्हें चोरी किया जाए ! ग्रंथ के साथ छेड़छाड़ करने के लिए ही चोरी जैसे कृत्य को किया जा सकता है! ऐसे ग्रंथ को सत्य मानना तो कृष्णदास कविराज की हत्या करने के समान है!!

महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य कौन हैं यह आपने अपने सुबोधिनी टीका के मंगलाचरण में स्वयं ही स्पष्ट किया है.. जिसका पुनः स्पष्टीकरण ,चैतन्य संप्रदाय के रघुनाथ दास गोस्वामी तथा विश्वनाथ चक्रवर्ती जैसे आचार्य द्वारा भी स्तुत्य- "गोस्वामी श्रीविट्ठलनाथजी" ने किया है (स्वामिनी श्रीराधाजी के भाव से पूरित वस्तुतः स्वयं कृष्ण)  !!

श्रीवल्लभ तो ऐसे आचार्य हैं जिन्हें भारतवर्ष में सर्वप्रथम महाप्रभु नाम से संबोधित किया गया! जिसके ऐतिहासिक प्रमाण के रूप में "बद्रीनाथ के तीर्थ पुरोहित को दिया गया वृत्ति पत्र" आज भी विद्यमान है!!

प्रसिद्ध अष्टाछापी सूरदास एवं कुंभनदासजी जैसे महान अवतारी भक्तों के गुरु महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य को चैतन्य चरितामृत का अपराधी लेखक *वैश्या* बोलने की धृष्टता करता है, उनके रचित ग्रंथों को *फल्गु प्राय* कह निंदा करता है, उन्हें *खद्योत आकर* कहता है, उन्हें *हंस मध्ये बत्तख प्राय*  कह रहा है !!

हम भी तो यही कह रहे हैं की इस प्रकार से, दैन्यता की प्रतिमूर्ति पुष्टि भक्ति के प्रवर्तक आचार्य  , वस्तुतः स्वयं कृष्ण अवतारी महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य की निंदा करने वाला ऐसा व्यक्ति किसी भी प्रकार से वैष्णव नही हो सकता!!

महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य के प्रिय श्री चैतन्य तो पुष्टिमार्गीय ग्रंथों में महा भक्त के रूप में स्वीकार्य रहे हैं एवं उनके अनुयाई षड गोस्वामी भी परम सिद्ध भक्तों के रूप में वार्ता साहित्य में स्वीकार्य हैं किंतु चैतन्य चरितामृत जैसे भ्रष्ट ग्रंथ को सत्य मानने से एवं प्रवचनों में इसके अपराध पूर्ण अंश को बार-बार कहने से विषाक्त वातावरण बना है!!

अतः यह तो सत्य ही है कि ऐसे अपराधी महाधुर्तों से तर्क वितर्क करने का ना तो कोई औचित्य है और ना ही हमारा ध्येय है... किंतु ऐतिहासिक सत्य को प्रकट कर निरीह निर्दोष भक्तों को ऐसे वैष्णव अपराध से सावधान करना हमारा धर्म कर्तव्य है!

जिनकी बुद्धि पर कलि पुरुष का स्वामित्व हो चुका है तथा जिनकी कृतियां मात्र कलिकाल को बढ़ाने में सहायक है ऐसे गौड़ीया वैष्णव वेष धारी, महाधूर्तो पर भी कृपापूर्वक सत्य को प्रकाश में लाने वाली श्रीवल्लभमहाप्रभुजी की वाणी आज भी भूतल पर विद्यमान है जो निर्दोष भक्तों की रक्षा करती रहेगी करती रहेगी और करती रहेगी!!

प्रथम तो चैतन्य चरितामृत में आने वाला वर्णन नितांत अशोभनीय है, वैष्णव अपराध ही है!

जो श्रीवल्लभ स्वयं श्री राधा कृष्ण की विरहाग्नि स्वरूप के अवतार है जिन्हें भारतवर्ष में सर्वप्रथम महाप्रभु का संबोधन प्रदान किया गया उनके प्रति इसमें अपशब्दों का उपयोग है. यह अपराध पूर्ण निंदा ठीक उसी प्रकार की गई है जिस प्रकार प्रेम विलास में गोस्वामी *श्री हित हरिवंश* के प्रति अपमानजनक बेतुके अपराधिक प्रसंगों का वर्णन कर दिया गया है...

यह वैष्णव अपराध इतना स्पष्ट है कि इसके लिए किसी भी प्रकार की कोई युक्ति लगाने की आवश्यकता है ही नहीं।

युक्ति तो ये गौड़ीय वैष्णव वेशधारी धूर्तलोग लगा रहे हैं अपने इस भ्रष्ट ग्रंथ को सत्य सिद्ध करने के लिए!!  इसी कारण हमारे महाप्रभुजी को *वैश्या* कह कर गाली देना, सुबोधिनी जैसे उत्तम ग्रंथों को **फल्गुप्राय कहना, हंस मध्ये बत्तख प्राय कहना इसे प्रशंसा बताने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं! और बात तो केवल चैतन्य द्वारा संबोधित किए जाने की भी होती तो भी एक बार को समझा जा सकता था किंतु यहां तो नीच लेखक अपना ही दृष्टिकोण प्रकट करते हुए गाली गलौज पर उतर आया है ! यह अपराधी लेखक अपना दृष्टिकोण बताते हुए कहता है "* *तान सब आगे भट्ट खद्योत आकर* ".... धृष्टता करते हुए वह कहता है...." *हंस मध्ये बक प्राय"* ... यह श्री चैतन्य द्वारा किया गया कोई हास्य विनोद नहीं है यह तो लेखक द्वारा अपराध पूर्ण तरीके से दी गई गालियां मात्र ही हैं...

अतः एक संप्रदाय के महान आचार्य को दी गई इस प्रकार की गालियों को अपनी युक्ति घुसाकर प्रशंसा बताने की व्यर्थ चेष्टा इन गौड़ीया वैष्णव वेषधारी धूर्तों को छोड़ देनी चाहिए!

अब आते हैं इन धूर्तों की शिक्षा वाली युक्ति पर अर्थात यह लीला श्री चैतन्य ने अपने भक्तों को शिक्षा प्रदान करने के लिए करी!!

प्रथम तो चैतन्य चरितामृत में आते इस प्रसंग की ऐतिहासिकता किसी भी प्रकार से सिद्ध होती ही नहीं. क्योंकि इस प्रसंग का वर्णन एकमात्र चैतन्य चरितामृत में ही प्राप्त होता है तथा अन्य किसी भी बंगाली , उड़िया अथवा संस्कृत भाषा में लिखे गए  ग्रंथ में तथा संपूर्ण पुष्टिमार्गीय साहित्य में ऐसे किसी प्रसंग का कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता और तो स्वयं इस ग्रंथ की भी प्राचीन प्रतियों में यह प्रसंग प्राप्त है अथवा नहीं यह भी पुष्ट नहीं है.

ऐसी नगण्य संभावना होने के बाद भी यदि एक बार को इसे सत्य मान भी लिया जाए तो भी लेखक द्वारा अपनी ओर से महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य को दी जाती गालियां किसी भी न्याय से वैष्णवोचित नहीं सिद्ध की जा सकती!

यदि यह प्रसंग किसी वैष्णव द्वारा लिखित होता तो उसने अवश्य ही एक संप्रदाय के आचार्य के लिए उपयुक्त मर्यादा का पालन किया होता जो इस लेखक ने बिल्कुल नहीं किया है.

यदि इस प्रसंग की रचना किसी वैष्णव व्यक्ति ने किसी सत्य घटना के आधार पर की होती तो उसे अवश्य ही यह तो ज्ञात होता कि जिनका वह वर्णन कर रहा है वह विष्णुस्वामी संप्रदाय के आचार्य ,साक्षात राधा कृष्ण के विरहाग्नि स्वरूप महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य हैं. जिन्हें स्वयं श्री कृष्ण ने साक्षात प्रकट होकर ब्रह्म संबंध मंत्र दीक्षा दे पुष्ट भक्ति मार्ग का प्रवर्तन किया तथा जो सूरदास जी एवं कुंभानदास जी जैसे महान अवतारी भक्तों के गुरु हैं. एक वैष्णव लेखक इन तथ्यों को छुपाने की चेष्टा कभी भी नहीं कर सकता ....

लेखक को इस बात का ज्ञान होता की सतत भगवान्नाम लेना श्रीवल्लभ के मूल सिद्धांतों में से एक है. किंतु इसके धूर्त लेखक ने तो श्रीवल्लभ को अपने ही मूलभूत सिद्धांत पर प्रश्न चिन्ह लगाते बता दिया है!

लेखक को इस बात का ज्ञान होता की श्रीवल्लभ द्वारा रचित सुबोधिनी तो कभी पूर्ण ही ना हो पाई तथा पुरी प्रवास के समय तो दशम स्कंध प्रारंभ तक नहीं हुआ था जो श्रीवल्लभ इसे चैतन्य को जबरन सुनने का प्रयास करते!!

लेखक को यह ज्ञान होता की श्रीवल्लभ ने अपने सर्वप्रथम ग्रंथ तत्वार्थ दीप निबंध से लेकर सुबोधिनी में भी स्वयं किशोर भाव- माधुर्य भाव को सर्वोच्च फल के रूप में बताया है .

लेखक को यह ज्ञान होता की श्रीवल्लभ प्रारंभ से ही श्रीकृष्ण के किशोर गोपाल सहित सभी स्वरूपों की सेवा समस्त भावों के साथ करने का प्रचार करते आ रहे हैं ना कि केवल मात्र वात्सल्य अथवा बालभाव से!

लेखक को यह ज्ञान होता की श्रीवल्लभ विष्णु स्वामी संप्रदाय के आचार्य होने के नाते अष्टादशाक्षर गोपाल मंत्र द्वारा दीक्षित हैं तथा स्वयं श्री कृष्ण द्वारा प्रदत्त ब्रह्म संबंध मंत्र से भी दीक्षित हैं जिसका उल्लेख श्री वल्लभ ने स्वयं ही सिद्धांत रहस्य ग्रंथ में किया है!

किंतु धूर्त लेखक द्वारा इन तथ्यों के विपरीत गाली गलौज से परिपूर्ण मनगढ़ंत अनर्गल बातें लिख दी गई है.

और फिर यदि यह प्रसंग सत्य होता तथा श्री वल्लभ ने गदाधर पंडित से दीक्षा ग्रहण की होती तो वे इसका उल्लेख अवश्य करते! श्रीवल्लभ तथा गोस्वामी श्री विट्ठल नाथ जी प्रभु चरण अवश्य कहीं ना कहीं श्रीचैतन्य की भी स्तुति करते तथा स्वयं को उनका अनुयाई घोषित करते!! किंतु इसके विपरीत श्री वल्लभ ने प्रारंभ से ही स्वयं को श्री विष्णुस्वामी संप्रदाय का अनुयाई ही बताया है! एवं गोस्वामी श्री विट्ठल नाथ जी ने भी इसी बात को पुष्ट करते हुए सर्वत्र केवल और केवल महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य की ही स्तुति करी है तथा किसी भी स्थान पर श्री चैतन्य अथवा गदाधर पंडित की स्तुति अथवा उल्लेख नहीं किया है.

अतः सिद्ध होता है की चैतन्य चरितामृत के इस अंश का लेखक एक धूर्त वैष्णव अपराधी ही था जिसने मनगढ़ंत बातें लिखकर अपना द्वेष शांत करने का कुत्सित प्रयास किया है!

मूलभूत धर्माचरण तथा वैष्णव धर्म  से संबंधित शिष्टाचार तो इस धूर्त वैष्णव अपराधी की लेखनी में प्राप्त होता ही नहीं उल्टे गाली गलौज से युक्त एक वैष्णव संप्रदाय के आचार्य की निंदा ही इसमें प्राप्त होती है!

दुर्भाग्य का विषय है कि आज की गौड़ीया वैष्णव वेषधारी धूर्त मंडली,  ऐसे घटिया अपराधिक प्रसंग को सही सिद्ध करने में एडी़ चोटी का जोर लगाए पड़ी है वह भी आत्मविसंगति के मूल्य पर!!

संभवत: अपने द्वारा रचित चैतन्य चरितामृत के चोरी हो जाने पर श्री कृष्ण दास कविराज गोस्वामी को श्रीकृष्णचैतन्य देव की कृपा से इस बात का पूर्वानुमान हो गया होगा कि भविष्य में किस प्रकार  गौड़ीय वैष्णव वेशधारी धूर्त मंडली उनके नाम पर वैष्णव अपराध में प्रवृत्त होगी और इसी दुख में उन्होंने आत्महत्या की होगी!! वस्तुत: श्री कृष्ण दास कविराज गोस्वामी आत्महत्या के दोषी है ही नहीं उनकी हत्या का दोष तो इस आपराधिक पाठ को सत्य मानने वाली धूर्त मंडली को ही जाता है!

Did Srī Caitanya rebuke Srī Vallabhācārya for writing commentary on Srībhāgavata ?

Answer: No!

Justification

Except the biography written by Kr̥ṣṇadāsa Kavirāj, none of the authors of biography of Sri Caitanya mentions such an incident in their versions.

“वास्तविक पंथी कर्णपूर्ण ओ भावपंथी कृष्णदासेर चैतन्यलीलवर्णना विन्यासे किछु-किछु असामंजस्य

विशेष करे देखबार विषय मुरारी कर्णपूर्ण ओ वृन्दावनदास बांग्लाय बसेइ ग्रन्थरचना करे छेन आर कृष्णदासश्रीधाम वृन्दावने विदग्ध वैष्णवमंडली परिवेष्टने अवस्थान करवार सुयोग पेय छेन”

(Prankishor Goswami in the editor’s note on Sri Caitanya Caritāmr̥ta)

As per Kr̥ṣṇadāsa Kavirāj and Vārṣabhānavidayitadāsa, Srī Vallabhācārya met Sri Caitanya and insisted to listen his commentary on Srībhāgavata that he wrote. Sri Caitanya denied to listen his commentary and further upon seeing the excessive ego and pride of Srī Vallabhācārya, Sri Caitanya rebuked him for writing an independent commentary on Srībhāgavata and not following śrīdhara svāmi. Further, they say – Srī Vallabhācārya also requested Gadādhara bhaṭṭa (Disciple of Caitanya) to be his Guru and after not getting enough respect in Caitanya saṁpradāya, left to accept viṣṇusvāmi saṁpradāya.

These claims are absolute false and are filled with mutual contradictions and inconsistencies – both from historical facts and the other texts written within Caitanya saṁpradāya perspective.

Srī Vallabhācārya wrote the commentary on Srībhāgavata in the later part of his life after completing several works from Tatvārthadīpanibandha, ṣōḍaśa grantha, bhāṣya on Brahmasutras and many other texts. From these texts, it becomes quiet evident that Srī Vallabhācārya accepted viṣṇusvāmi saṁpradāya ācāryatva and also founded nirguṇa śuddha bhakti saṁpradāya of Kr̥ṣṇa devotion called as Puṣṭi saṁpradāya. Thus, why would Srī Vallabhācārya want to become the disciple of Gadādhara bhaṭṭa who was in turn the disciple of Sri Caitanya?

Also, Lord Kr̥ṣṇa himself gave an order to Srī Vallabhācārya to write the the most honest interpretation of Srībhāgavata and bring out the ultimate essence from it as in his own words says “arthaṁ tasya vivēcituṁ…” and further when Lord Kr̥ṣṇa himself gave an order to Srī Vallabhācārya to give Brahmasambandha dīkṣā and establish the Puṣṭi saṁpradāya, why would he be otherwise be motivated to do out of his false and excessive ego as claimed by Kr̥ṣṇadāsa Kavirāj in his Caitanya Caritāmr̥ta? This is a very bizarre claim by Kr̥ṣṇadāsa Kavirāj regarding Srī Vallabhācārya!

Furthermore, there are two branches in Caitanya saṁpradāya i.e. Braj and Bang śākhās. Goswami Prāṇakiśōra in his editor's note on Caitanya Caritāmr̥ta mentions very clearly that the Braj śākhā and specifically the bhāva panthi Kr̥ṣṇadāsa Kavirāj has written the Caitanya Caritāmr̥ta which is filled with inconsistencies and written specifically with the malice and hatred towards Srī Vallabhācārya. He specifically called this particular group of people as Vidagdha maṇḍalī!! How interesting that majority of the followers in Bang śākhā within Caitanya saṁpradāya thinks that Kr̥ṣṇadāsa Kavirāj’s texts are unreliable!!

Did Srī Vallabhācārya request Gadādhara Bhaṭṭa to initiate him?

Answer: No! Lord Kr̥ṣṇa initiated Srī Vallabhācārya and ordered him to establish Puṣṭi saṁpradāya (Ref: siddhānta rahasya)

Justification

Before Srī Vallabhācārya met Gadādhara, he already wrote commentary on Srībhāgavata and in that he clearly mentions kiśōra līlā as an ultimate devotional experience and leela in phala prakaran of śrī subōdhinī!

Was Srī Vallabhācārya egotistic for writing commentary on Srībhāgavata?

Answer: No!

Justification

Srī Vallabhācārya wrote commentary on Srībhāgavata based on the orders he received from Lord Kr̥ṣṇa himself. śrīdhara svāmi's commentary was a māyāvādī explanation of Lord Kr̥ṣṇa's divine līlās mentioned in Srībhāgavata which was not the honest interpretation of the scriptures. He even discontinued writing his commentary after receiving orders from Lord Kr̥ṣṇa. This suggests the sole purpose of writing the commentary was only the Kr̥ṣṇa's wish and not to brag! Srī Vallabhācārya never considered śrīdhara svāmi as his “svāmi (Master)”. Only Master he considers is Lord Kr̥ṣṇa (कृष्ण एव गतिर्मम)!

As per Kr̥ṣṇadāsa Kavirāj, Once Vallabha Bhatt insisted Sri Caitanya to hear his commentary written on Srībhāgavata. Seeing the false pride of Vallabh bhatta, Caitanya rebuked Vallabh Bhatt for creating an independent commentary on Srībhāgavata and not aligning to śrīdhara svāmi's explanation.

This is yet another monstrous attack questioning the character of Srī Vallabhācārya. It seems this group of people(i.e. Vidagdha maṇḍalī!) wants to issue character certificates to all those people who has self-confidence and are genuinely ecstatic and immersed into Kr̥ṣṇa Bhakti like Srī Vallabhācārya. They simply cannot stand the effect and influence of the divine attributes from other Kr̥ṣṇa devotees. Again trying to monopolize Kr̥ṣṇa Bhakti!!

Question to them -- Will Sri Caitanya also rebuke śrīla sanātana gōsvāmī(who belongs to his own saṁpradāya and is his disciple) for writing independent commentary on Srībhāgavata and for his rebuttal on śrīdhara svāmi's māyāvādī interpretation? If not, why target Srī Vallabhācārya? Just because he had that self-confidence and spine to take-on the māyāvādīns and bring out the true essence of Srībhāgavata?!

Who is more egotistic?

The characteristics of an Ideal Krishna devotee as per Sri Caitanya is below -

तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरिः

The one who always respects others, tolerant to even those who are undeserving, and who is always immersed into chanting the name of Lord Kr̥ṣṇa

Words of Srī Vallabhācārya Words of Sri Caitanya
“For a long time I have desired to see You, my lord. Now Lord Jagannatha has fulfilled this desire; therefore I am seeing You” One who does not accept the

Sridhar svami as an authority I consider a prostitute.

“One who receives Your audience is fortunate indeed” When Sri Caitanya Mahaprabhu rigidly declined to hear his explanations
“Since one who remembers You is purified” Whenever Vallabha Bhatta entered the society of devotees, headed by Advaita Acarya, he was like a duck in a society of white swans
“You have manifested the holy name of Krishna throughout the entire world” My dear Vallabha Bhatta, you do not know religious principles
“Thereafter, with great submission and humility, Vallabha Bhatta invited Sri

Caitanya Mahaprabhu to dine at his home”

When Vallabha Bhatt saw all the devotees of Sri Caitanya Mahaprabhu, he was greatly surprised, but in devotion he offered his obeisances at the lotus feet of each and every one of them

As per the character portrayal of Srī Vallabhācārya and Sri Caitanya by Kr̥ṣṇadāsa Kavirāj, it seems based on the words of Srī Vallabhācārya, he seems to be respectful, graceful, full of gratitude, and modest. Whereas the usage of words like “prostitute” and rigidly declining to hear commentary on Srībhāgavata which is considered as the vāngmaya of Lord Kr̥ṣṇa himself, and who is being judgemental!! We do not think Kr̥ṣṇadāsa Kavirāj correctly portrayed the character of both the divine personalities! How can he portray such a non-idealistic character of Sri Caitanya?!!!

Inconsistencies in Caitanya Caritāmr̥ta regarding the māyāvādī interpretation of Srībhāgavata

Pro-māyāvādī statements Against-māyāvādī statements
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Pro-Mayavadi-statement-2.png Mayavadi-against-statement-2.png
Pro-Mayavadi-statement-3.png Mayavadi-against-statement-3.png
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There are both pro-māyāvādī and against-māyāvādī statements (which are essentially mutually contradictory) in the same text of Caitanya Caritāmr̥ta.

Pro-māyāvādī statements

Some of the pro-māyāvādī statements found in the text are

  1. "You have dared criticize śrīdhara svāmi, and you have begun your own commentary on Srībhāgavata, not accepting his authority. That is your false pride.",
  2. "śrīdhara svāmi is the spiritual master of the entire world because by his mercy we can understand Srībhāgavata. I therefore accept him as a spiritual master",
  3. "One who comments on Srībhāgavata following in the footsteps of śrīdhara svāmi will be honored and accepted by everyone"

Against-mayavadi statements

Diametrically opposite stand in the same text are below –

  1. Anyone who follows the principles of māyāvāda philosophy is certainly doomed
  2. Māyāvādī philosophers are the greatest offenders to Lord Krsna
  3. Srīdhara svāmi has used the ink of māyāvāda in writing the śuddha vaiṣṇava siddhānta in his commentary
  4. I am publishing the commentary of Srībhāgavata since śrīdhara svāmi could not bring out the essence of it.

Was Sri Caitanya not aware of śrīdhara svāmi’s māyāvādī interpretation of Srībhāgavata?

From the below references, it is evident that śrīdhara svāmi was a māyāvādīn.

Sridhar-swami-mayavadi-1.pngSridhar-swami-mayavadi-2.pngSridhar-swami-mayavadi-3.png

  1. śrīdhara svāmi says - "Upon commencing my commentary on gītā , I will justify systematically the essence of gītā based on theory proposed by bhāṣyakāra - Bhagavad pāda śrīmad śaṁkara" in his gītā bhāṣya's introduction. Further, śrīdhara svāmi describes the svarūpa of lord kr̥ṣṇa as saviśeṣa brahman which is not the ultimate reality while interpreting the śloka (13/12 of gītā). Here is śrīdhara svāmi's interpretation of the śloka - "There is a greater level of supreme reality called as nirviśeṣa rupa brahman than me (i.e. kr̥ṣṇa), who is viṣṇu."
  2. śrīdhara svāmi, in his commentary on viṣṇu purāṇa refers to have relied upon citsukhācārya's commentary. Citsukhācārya was associated with śaṁkara from the age of 5. Further, in his commentary on śloka 1.4.40 of viṣṇu purāṇa, says "Those who views this jagata as real are ignorant and are under the influence of illusion caused by māyā"
  3. śrīdhara svāmi, in his commentary on śrīmad bhāgavata purāṇa, says "Jagata is neither sad, asad but its sad-asad-vilakṣaṇa, similar to śukti rajata. Jagata is illusionary as it appears to be existing, to be changing, but does not exist in reality." (bhāgavata bhāvārtha dīpikā - 10.87.37). Further he says "due to many reasons, prapanca (jagata) is proven to be non-existent in reality" (bhāgavata bhāvārtha dīpikā - 12.4.29).

In Praise of Srī Vallabhācārya by Sri Caitanya and Raghunāthdās Gosvāmi

Sri Caitanya said below to Srī Vallabhācārya -

You are a follower of Vedic principles and are a well experienced performer of many sacrifices

InpraiseofSriVallabhacharya-1.png

Sri Raghunāthdās Gosvāmi says below in praise of Srī Vallabhācārya -

I pay obeisance to śrīla gōpāladēva(śrīnāthajī) whose personified form of his sakti is Srī Vallabhācārya!

InpraiseofSriVallabhacharya-2.png

Clarification 1:

White

Caitanya Caritāmr̥ta mentions father-in-law of nimāi paṇḍita i.e, father-in-law of Kr̥ṣṇa Caitanya, a normal Bengali Brahmin as Vallabhācārya, but the celebrated ācārya of viṣṇusvāmi saṁpradāya (proved by letter of Srī Vallabhācārya dated 1490 AD), ācārya and founder of Puṣṭimārga saṁpradāya (Puṣṭi Bhaktimārga started in 1492 AD after Srī Vallabhācārya received direct initiation from Lord Kr̥ṣṇa), Guru of great vaiṣṇava devotees like Kumbhanadāsa, Sūradāsa etc is not even mentioned once as an ācārya in all of its chapters. So either the writer was envious of Srī Vallabhācārya and his saṁpradāya or was unaware of contemporary historical facts.

Adjoined manuscript is one of the most authentic pieces of evidence which was also approved by historians and even by the Bombay High court in 1922.

Clarification 2:

SriVallabhadigvijaya-script.png

Caitanya Caritāmr̥ta never mentions Srīnāthajī along with Srī Vallabhācārya! Whereas, it was Srī Vallabhācārya who gave the sevā of Srīnāthajī to Mādhvendra Purī (his śikṣā guru) as guru dakṣiṇā after completing his learning of vaiṣṇava śāstras in 1487 A.D. It was Srī Vallabhācārya who kept Kumbhanadāsajī in kīrtana sevā of Srīnāthajī in 1492 A.D., kept Suradāsajī in sevā of Srīnāthajī in 1510 A.D. Hence stories described by Kr̥ṣṇadāsa Kavirāja in his Caitanya Caritāmr̥ta are baseless, unhistorical and misleading!

Pramāṇa from śrī vallabhadigvijaya grantha, which clearly shows the fact that Srī Vallabhācārya gave seva of Srīnāthajī to Mādhvendra Purī and appointed Kumbhanadāsajī and Suradāsajī in the kīrtana sevā of Srīnāthajī.

Clarification 3:

Shri Vitthalnathji's Janma Patrika

Historical in-accuracies in Caitanya Caritāmr̥ta were accepted by even the founder of "Gauḍīya Maṭha" i.e. Bhakti Siddhānta ṭhākura!

देखि वल्लभ भट्ट मने चमत्कार हैल।

दुईपुत्र आनि प्रभुर चरणे पड़ील।।

(19/108, चैतन्य चरितामृत मध्य लीला)

The two sons of Vallabhācārya were Gopīnātha and Viṭhaleśvara. When Sri Caitanya Mahāprabhu visited Prayāga in the year 1434 or 1435 śakābda, Viṭhaleśvara was not yet born. Hence Caitanya Caritāmr̥ta, as written by Kr̥ṣṇadāsa Kavirāj is historically inconsistent and false! Janma patrikā of Srī Viṭṭhalanāthajī(Gusāīn jī) proves the fact that he was born years later after Kṛṣṇa Caitanya visited Prayāga.

Clarification 4:

Caitanya Caritāmr̥ta wrongly represents tenets of Srī Vallabhācārya. Vallabhācārya is shown questioning Caitanya -

पतिव्रता हन पतिरा नाम नहीं लय।

तोमार कृष्ण नाम लहा कौन धर्म हय।।

(चै° च° अंत्य लीला)

Whereas in his own works Srī Vallabhācārya has already stressed on continuous Kr̥ṣṇa Nāma Jāpa.

तस्मात सर्वात्मना नित्यं श्री कृष्ण: शरणं मम।

वदद भिरेव सततं स्थेयमित्येव मे मति:।। (नवरत्नं)

सर्वदा सर्व भावेन भजनीयो व्रजाधिप:। (चतु:श्लोकी)

तावदानंद संदोह कीर्त्यमान:सुखाय हि।। (निरोधलक्षण)

And many more examples are there. Hence Caitanya Caritāmr̥ta as written by Kr̥ṣṇadāsa Kavirāja is NOT based on facts!

Clarification 5:

Another example of wrong and misleading representation in Caitanya Caritāmr̥ta is-

वल्लभ भट्टेर हय वात्सल्य उपासन।

बालगोपाल मंत्रे तेहां करेन उपासन।।

पंडितेर सने तार मन फिरी गेल।

किशोर गोपालेर उपासनाय मन दिल।।

(चै° च° अंत्य लीला)

But the truth is Srī Vallabhācārya was doing sevā of Madanamohanajī, Gokulanāthajī and other svarūpas of kr̥ṣṇa years before the sanyāsa of Caitanya and that too with mādhurya bhāva. In all his ṣoḍaśa graṃtha, tatvārthadīpa nibaṃdha and subodhinī Srī Vallabhācāryaji has described seva in mādhurya bhāva or kiśora bhāva as topmost fal. Srī Vallabhācāryaji was already dīkṣita in Viṣṇu svāmī saṃpradāya with Gopālamaṃtra (from śrī Lakṣmaṇa Bhaṭṭa jī) ,which is described to contain the bīja of mādhurya bhāva and then in 1492AD (śravaṇa kṛṣṇa ekādaśī) directly from śrī Kṛṣṇa he got initiated in Brahmasaṃbaṃdha maṃtra which has the bīja of all bhāvas with mādhurya bhāva it’s topmost fal.

In fact Srī Vallabhācāryaji has said

सर्वदा सर्व भावेन भजनीयो व्रजाधिप: …. (चतु:श्लोकी)

Here, śrī Vallabha orders all his followers to worship śrī kṛṣṇa with all the bhāvas, as Srī Vallabhācāryajī considered Bhakti a separate Rasa encompassing all other rasas mādhurya, vātsalya, sakhya etc and hence orders to perform sevā with this sarvātmā bhāva encompassing all bhāvas and he himself followed the same. Clarification 6: Writer of Caitanya Caritāmr̥ta is a vaishnav aparadhi. At several instances writer has shown his enviousness towards Srī Vallabhācārya and his sampraday.

तान सब आगे भट्ट खद्योत आकार।।

…राजहंस मध्ये येन रहे बक प्राय।

…वैश्यार भितरे तार करिये गणन।

(चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला अध्याय ७ )

No vaishnav can utter such blasphemous words for Acharya of a vaishnav samprday. Just to satisfy his hate and enviousness against Srī Vallabhācārya and his sampraday the writer wrongly accuses Srī Vallabhācārya being full of pride and feeling prestigious by having criticised shridhar swami, whereas Srī Vallabhācārya being Acharya of Pushti sampraday have always said in several of his granthas that any kind of Ahamkar is badhak in krishna seva and has never criticised shridhar in any of of his works.

Conclusion

  • Kr̥ṣṇa Bhakti can never be a monopoly of any sect, religion, or community.
  • Srī Vallabhācārya was neither the disciple of Gadādhara bhaṭṭa nor requested to become one.
  • Srī Vallabhācārya wrote commentary on Srībhāgavata due to Lord Kr̥ṣṇa's wish in order to strengthen the pure devotion towards Lord Kr̥ṣṇa that was previously polluted by the theory of māyāvāda.
  • Srī Vallabhācārya and Sri Caitanya shared a very cordial relationship with each other
  • All the sects/religions should strive for inter-faith harmony and to be respectful of each other and its philosophies while being committed to one own’s religion.
  • Always introspect your own-self and stop proselytizing others. Let live and other live peacefully and maintain religious harmony.

ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥